दस साल के बाद गोधराकांड के बारे में सोचता हूँ तो मन में एक
प्रश्न उठता है। क्या एक्शन-रीएक्शन की फेनेटिकली मोडीफाईड (एफएम) थीयरी सही है? जैसे कि,
-
1993 में बाबरी मस्जिद को ध्वंश करने के लिये कट्टरपंथी हिन्दुओं
का एक्शन।
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2002 में गोधरा में ट्रेन जलाने का रीएक्शन
- बदला लेने के लिये समस्त राज्य में लघुमतियों के उपर राज्य प्रेरित
वंशीय संहार का एक्शन।
- घिनौने हत्याकांडो के साथ चुनावो में हिन्दुत्व की लहर का रिएक्शन,
और फिर,
पिछले दस सालो में आई वाइब्रन्ट
एक्शनो की बाढ,
रू.1200 करोड के खर्च से
साकार हुई रीवरफ्रन्ट योजना, जिसने सर्जी विस्थापितों की कतार और पंतगोत्सव की
भरमार,
जहां गांवो में से 50 से
85 प्रतिशत लोग रोजीरोटी की खोज में पलायन करते है, ऐसे कच्छ में 7000 रू के ए.सी
टेन्टो में शुरू हुई रणोत्सव की क्रीडा,
- जिसका बाजार मूल्य रू.10,000 प्रति चोरस मीटर है, उस जमीन ताता को
900 रू प्रति चोरस मीटर के भाव से बेचकर रू. 30,000 करोड रूपये का फायदा करवाया,
- जिसके वतन रूपपुर में दलितों की स्मशानभूमि छीन ली गई उस निरमा के करसन
पटेल को रू. 2500 करोड में सीमेन्ट बनाने के लिये 'देवो को भी दुर्लभ' महुवा की उपजाऊ जमीन देने
की सरकार ने जिद की,
- पिछले साल 52 लाख और इस साल 60 लाख गट्ठर रू की ‘वाईब्रन्ट' निकास में जेनेटिकली
मोडिफाईड (जीएम) बीटी कोटन का 90 प्रतिशत हिस्सा है, जिसकी बोआई में हर साल एक
लाख मासूम आदिवासी बच्चों की पढाई और जिंदगी खत्म होती है,
बीते दस सालो में किसने
क्या किया?
भाजपा सरकार - उसने
ब्युटिफिकेशन, ग्लोबलाईझेशन, प्राईवेटाईझेशन का कांग्रेस के द्वारा शुरू किये गए एजेन्डा
का अत्यंत घातकी रूप से अमल किया. रीवर फ्रंट योजना का सपना दलित मेयर जेठालाल
परमार के समय में कांग्रेस ने देखा था. 1984-85 में कागदीवाड को चारो तरफ पुलिस ने
घेरा डाला उस वक्त स्वैच्छिक संस्थाये नदी के पट में उतर पडी थी. 2002 के नरसंहार
ने नागरिक समाज को और अधिक संवेदनहीन बना दिया ऐसा कहेंगे? या बिल्डर लॉबी और सत्ता
की सांठगांठ अधिक सबल बनी है ऐसा कहेगें?
कांग्रेस - गुजरात में
नरेन्द्र मोदी के सबसे मजबूत समर्थक के रूप में कोंग्रेस की कामगीरी इतिहास में
जरूर दर्ज की जायेगी. गुजरात में नरेन्द्र मोदी सत्ता पर रहेगा, तब तक समग्र भारत
के मुसलमान कांग्रेस को ही वॉट देंगे यह समीकरण सच साबित हुआ.
सेक्युलर सवर्णों – दंगो
में दलितों-आदिवासियों ने बडे पैमाने पर हिस्सा लिया, इस अफवाह का देश और दुनिया
में ढोल बजा बजाकर प्रचार किया और खुद गील्ट फीलिंग में से मुक्त हो गये. सवर्ण होने
के नाते दलितों, आदिवासीओं की ओर से बोलने का ठेका तो था ही, अब सेक्युलर बने तो
मुसलमानो के प्रवक्ता बनने का बोलने का अधिकार भी मिल गया.
एनजीओ - दस साल बाद
इन्साफ की डगर पर प्रोजेक्ट आधारित एनजीओ इकठ्ठी हो सकती है, परन्तु समुदाय इकठ्ठे
नहीं होते.
मध्यम वर्ग - माधवसिंह
सोलंकी गुजरात को जापान बनाने की बाते किया
करते थे, तब उन्हे एहेसास नहीं होगा कि उनके पक्ष की जडें उखाड फेंकनेवाला प्रत्याघाती
विचारधारा को समर्पित पक्ष हिन्दु मध्यमवर्ग की आंखो पर विकास की पट्टी बांध देगा.
बीते दस सालों में मध्यम वर्ग और भी स्वार्थी बना है. भ्रष्ट व्यवस्था के सभी लाभों
को अपनी जेब में डालकर "मैं अन्ना हजारे हुँ" की टोपी पहेनकर आश्रम
रोड पर दौडने लगा यह मध्यम वर्ग.
मुसलमान - गोधराकांड को
एक भयानक दु:स्वप्न समझकर मुसलमान अस्तित्व के संघर्ष में दुगनी ताकात से जुट
गया. भाजप गुजरात में हमेशा रहेगा ही ऐसी दहशत के साथ जीने की आदत पड गई. परन्तु
लंगडे घोडे जैसी कांग्रेस को वॉट देने की लाचारी उसे खटक रही है.
दलितो - "जिस दिन हरिजन हथियार
लेकर सवर्णो पर हमला करेंगे, उस दिन मैं पांव में घूंघरु पहनकर नाचूंगा" ऐसा 30 साल पहले अमदाबाद
के आंबेडकर हॉल में कहनेवाले भानु अध्वर्यु के हर एक शब्द पर मैं तालिया बजाता था।
2002 में मुसलमान विरोधी सवर्ण-आक्रोश में दलितों को भी शामिल होता देख कर मैं सोचता था, क्या
यही समाज परिवर्तन है, जिसके लिये मैं इतना रोमांचित था?
दस सालो में दलितों का
अग्रवर्ग कांग्रेस को छोडकर भाजपा की तरफ मुडा है और सत्ताकेन्द्र के पास रहकर
पर्याप्त मखन-मलाई खाने के बाद अब दलित समाज के लिये चिंतन शिबिर आयोजित कर रहा
है. संघ परिवार के मासिक "समरसता सेतु" के फरवरी-2012 अंक के मुताबिक, धंधुका तहसील के ब्राह्मण बटुकों
को यज्ञोपवित संस्कार प्रसंग पर गुरुमंत्र की दीक्षा एक दलित संत पूज्य श्री
शंभुनाथजी महाराज के हाथो से दिया गया. गुजरात में संघ परिवार के एक प्रखर प्रचारक
का शासन हो तब दलितो को ऐसी फिजूल बातो से संतोष कैसे हो सकता है? द्वारका, अंबाजी, डाकोर जैसे
हिन्दुओं के पवित्र धामों में वाल्मिकी समाज के सुशिक्षित युवकों की बतौर पूजारी
नियुक्ति हो तो ही सही समरसता होगी. नरेन्द्र मोदी को ये कहने की ताकात देवजीभाई
रावत, प्रो. पी. जी. ज्योतिकर, मिनेश वाघेला जैसे भगवा-दलितों में है क्या?
हमने राजपुर-गोमतीपुर की
बीस चालीओं के 1052 कुटुंबो के 4026 विद्यार्थीओ का सर्वे करवाया तब ड्रोप-आउट रेट
का प्रमाण 54.11 जानने मिला. कोलकत्ता के सोनागाछी विस्तार की सेक्स वर्कर्स के
संतानो के ड्रोप-आउट रेट का प्रमाण भी लगभग इतना है. इसकी जानकारी पश्चिम बंगाल के
महिला और बाल कल्याण मंत्रालय और युनिसेफ ने संयुक्तरूप से अपने अभ्यास में दी गई
है. सिर्फ एक सूत्र में दलितों की हालत व्यक्त करनी हो तो, मैं कहूंगा कि, गांव
में खेत नही, शहर में शिक्षा नही."
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बीते दस सालो में दलितों
और मुसलमानो के बीच जो खाई खडी हुई वह तो सिर्फ एक परिणाम है, उसकी जड तो सन् 1981
में शुरू हुये आरक्षण विरोधी दंगो में है, जिसका विस्तार से वर्णन मैंने मेरी लघु
पुस्तिका "भगवा नीचे लोही" में की है. गोधरा में हुए संमेलन "न्याय की खोज" में मैंने दो प्रमुख मुद्दें
कहे थे, वे प्रस्तुत करता हूँ. मैंने कहा था, "नरेन्द्र मोदी के
पोलिटिकल एन्काउन्टर का समय हो गया है. तीस साल पहले गुजरात की
विधानसभा में मुसलमानों के नव प्रतिनिधि
बैठते थे. आज सिर्फ चार धारासभ्य है. बाकी की पांच बेठको पर भाजपा के उम्मीदवार
चुने गये है. भाजपा ने मुसलमानो के खिलाफ दलितों, आदिवासीओ और पिछडो को उकशाया और
दंगे करवाये. मुसलमाने ने जो बैठके गंवाई उनमें से एक भी बैठक पर आज दलित, आदिवासी या पिछडे वर्ग का कोई
भी व्यक्ति नही चुना गया. नरेन्द्र मोदी सचमुच सदभावना चाहते है तो, कम से कम एक
मुसलमान को तो उनकी केबिनेट में मंत्री बनाया होता...
आनंदीबहेन ने पाटण के
दलित महोल्लो में जाकर सफाई कर्मचारी वृद्धो के पांव धोये. और समस्त गुजरात के
सफाई कर्मचारी खुशी से गदगदित् हो गये. आनंदीबहेन तो नाटक करती है. हम नाटक नही
करते. गोधरा का मुसलमान गुजरात का मुख्यमंत्री हो सकता है, शर्त बस इतनी है कि
दलितों को समानता दिलाने के लिये उसे लडना होगा. आपकी तरह इस राज्य में बहोत लोग,
दलितों, आदिवासीओ, पिछडे लोग न्याय की खोज में है. उनकी लडाई आपकी लडाई बनेगी तब ही
आपकी जीत होगी."